भारत बना 'मधुमेह का गढ़’

डायबटीज़
दिल्ली में रहने वाले पंकज वधावन ने अपने बेटे राघव के लिए एक ही सपना देखा था.
पंकज चाहते थे कि राघव एक बेहतरीन खिलाड़ी बने, क्योंकि वो खुद पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के लिए खेल को करियर के रुप में नहीं चुन पाए. लेकिन 12 साल के राघव के लिए ज़िंदगी की सच्चाई अब कुछ और है.
छह साल की उम्र में राघव डायबटीज़ यानी मधुमेह का शिकार हो गया और अब हर दिन खाने से पहले उसे इंसुलीन का इंजेक्शन लेना होता है.
राघव जब छह साल का था तब अचानक उसके शरीर में पानी की कमी होने लगी और रात को वो बिस्तर गीला कर देता था. उसकी इस समस्या को लेकर हम डॉक्टर के पास पहुंचे और तब से वो इंसुलीन के इंजेक्शन पर निर्भर है. मुझे हमेशा लगता था कि डायबटीज़ बड़े-बुज़ुर्गों की बीमारी है लेकिन राघव की इस बीमारी ने हमारी ज़िंदगी बदल दी.
पंकज वधावन, पिता
राघव ज़्यादा थकाने वाले खेल नहीं खेल सकता और ये समझने में नाकाम है कि आखिर क्या वजह है कि उसके पिता किसी भी मैच के लिए उसे अकेले जाने की रज़ामंदी नहीं देते. लेकिन पंकज जानते हैं कि हर मिनट की ये सावधानी अब राघव की ज़िंदगी का एक हिस्सा है.

‘मधुमेह का गढ़'

पंकज बताते हैं, ''राघव जब छह साल का था तब अचानक उसके शरीर में पानी की कमी होने लगी और रात को वो बिस्तर गीला कर देता था. उसकी इस समस्या को लेकर हम डॉक्टर के पास पहुंचे और तब से वो इंसुलीन के इंजेक्शन पर निर्भर है. मुझे हमेशा लगता था कि डायबटीज़ बड़े-बुज़ुर्गों की बीमारी है लेकिन अब शायद बच्चे भी इससे बच नहीं सकते.''
राघव की कहानी भारत में डायबटीज़ के शिकार उन हज़ारों-लाखों मरीज़ों में से एक है जो महानगरों में तेज़ी से फैल रहे मोटापे और मधुमेह के जाल में फंसते जा रहे हैं.
मज़बूत होती अर्थव्यवस्था, रहन-सहन के बदलते अंदाज़ और खाने-पीने की आदतों के वैश्विरण ने भारत को विश्व के लिए ‘मधुमेह का गढ़’ बना दिया है.
डायबटीज़ के इन बढ़ते मामलों और इस बीमारी के कारणों पर अनुसंधान करने वाली संस्था ‘डायबटीज़ फाउंडेशन ऑफ इंडिया’ से जुड़ी सीमा गुलाटी के मुताबिक भारत में डायबटीज़ पर पहले मान्य आंकड़े भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की ओर से सत्तर के दशक में जारी किए गए.
भारत में इन दिनों हम जो खाते हैं और जिस तरह अपनी रोज़मर्रा ज़िंदगी जीते हैं उसमें बड़ा असंतुलन है. पहले हम घर का बना कम घी-तेल वाला खाना खाते थे और दफ़्तरों-स्कूलों तक पैदल जाते थे. तब भोजन और उससे मिलने वाली ऊर्जा का अनुपात सही हुआ करता था. अब हम ज़्यादा से ज़्यादा बाहर खाते हैं, कम से कम शारीरिक गतिविधी करते हैं, तनाव अब हमारी ज़िंदगी का हिस्सा है और खाना हमारे लिए विलासिता दिखाने का एक मौका.
डॉक्टर अनूप मिश्रा, फोर्टिस अस्पताल
ये पहली बार था जब डायबटीज़ के बढ़ते मामले डॉक्टरों के लिए चिंता की वजह बने. सीमा कहती हैं, ''इस अध्ययन में सामने आया कि भारत के शहरी इलाकों में मधुमेह 2.3 फीसदी की दर से बढ़ रहा है और ग्रामीण इलाकों में 1.5 फीसदी की दर से. 1989-1995 के बीच मधुमेह के मामलों में 40 फ़ीसदी बढ़ोत्तरी दर्ज हुई और साल 2000 में देशभर में हुए एक अध्ययन में सामने आया कि शहरी वयस्कों में मधुमेह के मामले 12 फीसदी तक पहुंच गए हैं.''

डायबटीज़ की जड़ मोटापा

डायबटीज़ के ये मामले सीधे तौर पर मोटापे से जुड़े हैं. 1998 से 2005 के बीच भारत में मोटापे के शिकार लोगों में 20 फीसदी का इज़ाफ़ा हुआ और ये साल दर से संख्या तेज़ी से बढ़ रही है.
यही नहीं ‘डायबटीज़ फाउंडेशन’ की ओर से हाल ही में भारत के छह प्रमुख शहरों में किए गए एक सर्वे के मुताबिक दिल्ली जैसे शहरों में हर तीन में से एक बच्चा मोटापे का शिकार है और दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में बच्चे ज़रूरी पोषण से चार गुना अधिक तक खाना खा रहे हैं.
कुलमिलाकर भारत में जहां एक ओर बड़ी संख्या में लोग आज भी भुखमरी से पीड़ित हैं वहीं दूसरी ओर ज़रूरत से अधिक पोषण से जुड़ी ये बीमारियां शहरों और गांवों में अपना डेरा डाल रही हैं.
दिल्ली स्थित फोर्टिस अस्पताल में एंडोक्रेनोलॉजी विभाग के अध्यक्ष डॉक्टर अनूप मिश्रा इसके लिए भारतीयों की बड़ी होती जेब और उसके आगे नतमस्तक उनकी जीवनशैली को दोषी मानते हैं.
डॉक्टर मिश्रा के मुताबिक, ''भारत में इन दिनों हम जो खाते हैं और जिस तरह अपनी रोज़मर्रा ज़िंदगी जीते हैं उसमें बड़ा असंतुलन है. पहले हम घर का बना कम घी-तेल वाला खाना खाते थे और दफ़्तरों-स्कूलों तक पैदल जाते थे. तब भोजन और उससे मिलने वाली ऊर्जा का अनुपात सही हुआ करता था. अब हम ज़्यादा से ज़्यादा बाहर खाते हैं, कम से कम शारीरिक गतिविधी करते हैं, तनाव अब हमारी ज़िंदगी का हिस्सा है और खाना हमारे लिए विलासिता दिखाने का एक मौका.''
इसके परिणाम सामने हैं, भारत में 2005 तक मधुमेह के शिकार लोगों की संख्या 5.1 करोड़ तक पहुंच गई थी. मधुमेह को लेकर भारत सरकार की ओर से हाल ही में जारी आंकड़ों के मुताबिक 2030 तक ये संख्या बढ़ कर आठ करोड़ तक पहुंच जाएगी.

ग्रामीण इलाके भी चपेट में

जानकार मानते हैं कि शहरों में बढ़ रहा मधुमेह का ये जाल जल्द ही ग्रामीण इलाकों को भी अपनी चपेट में ले लेगा. इसकी एक बड़ी वजह है पलायन क्योंकि जो ग्रामीण शहरी इलाकों का रुख करते हैं उनमें से कई शहरी जीवनशैली में ढलकर इन बीमारियों के शिकार हो जाते हैं.
भारत जैसे देशों में एक बड़ी समस्या ये भी है कि एक ओर जहां अर्थव्यवस्था में हो रहे सुधार का फ़ायदा स्वास्थ्य क्षेत्र को नहीं मिला है, वहीं मधुमेह जैसी बीमारियों के शिकार लोगों पर होने वाला खर्च बढ़ता जा रहा है.
इस ख़तरे को भांपते हुए भारत सरकार ने इस साल देश कई प्रमुख शहरों के झुग्गी-बस्ती इलाकों में मधुमेह जांच शिविर आयोजित किए. मकसद था लोगों में इस बीमारी के प्रति जागरुकता पैदा करना.
भारत में आज भी स्वास्थ्य सुविधाएं ग़रीबों की पहुंच से दूर हैं. कैंसर और टीबी जैसी घातक बीमारियों के मरीज़ भी अक्सर इलाज के बिना मर जाते हैं. ऐसी परिस्थिति में लोगों को मधुमेह जैसी बीमारी के बारे में जागरुक करना मुश्किल है क्योंकि इसका असर जल्द नहीं दिखता. ये एक धीमे ज़हर की तरह है जिसकी तरफ लोगों का ध्यान नहीं.
संजय झा, सरकारी डॉक्टर
इन कैंपों में आने वाले बहुत से लोगों की जांच में डायबटीज़ के लक्षण सामने आए लेकिन ज़्यादातर लोगों के लिए मधुमेह से बड़ी चिंता थी भारत में महंगा होता इलाज और सरकारी अस्पतालों में चिकित्सा सुविधाओं की कमी.

'धीमा ज़हर है डायबटीज़'

लेकिन ऐसे ही एक शिविर का संचालन कर रहे डॉक्टर संजय झा लोगों की इस दुविधा को समझते हैं, ''भारत में आज भी स्वास्थ्य सुविधाएं ग़रीबों की पहुंच से दूर हैं. कैंसर और टीबी जैसी घातक बीमारियों के मरीज़ भी अक्सर इलाज के बिना मर जाते हैं. ऐसी परिस्थिति में लोगों को मधुमेह जैसी बीमारी के बारे में जागरुक करना मुश्किल है क्योंकि इसका असर जल्द नहीं दिखता. ये एक धीमे ज़हर की तरह है जिसकी तरफ लोगों का ध्यान नहीं.''
इस सब के बीच मधुमेह का बढ़ता ख़तरा सरकार के लिए एक आर्थिक झटका भी बन रहा है.

बढ़ती संपन्नता बढ़ती तोंद

डॉक्टर अनूप मिश्रा कहते हैं, ''मधुमेह के शिकार व्यक्ति और उसके परिवार के लिए ही नहीं बल्कि भारत के लिए भी डायबटीज़ के बढ़ते मामले आर्थिक नुकसान की वजह बन रहे हैं. मधुमेह का मरीज़ घातक बीमारियां जल्दी पकड़ता है और ऐसा होते ही उसके इलाज का खर्च कई गुना बढ़ जाता है. भारत में 2010 में मधुमेह पर अलग-अलग तरीकों से 1500 अरब रुपए से ज़्यादा का खर्च हुआ. ज़ाहिर है भारत जैसे देश के लिए इस खर्च को वहन नहीं करना बेहद मुश्किल है. भारत को जल्द से जल्द इस बीमारी की रोकथाम के लिए मुस्तैद होना होगा.''
भारत में मधुमेह के मामले लगातार बढ़ रहे हैं और ज़ाहिर है कि भारतीय बच्चे और नौजवान नई जीवनशैली से जंग हारते जा रहे हैं.
ऐसे में बचाव का रास्ता तभी मुमकिन है जब भारत जैसे देशों में बढ़ती संपन्नता लोगों की तोंद पर अपना असर न दिखाए